समस्याओ की जड़ अपवित्रता हैं
-अपवित्रता अर्थात वासना के विचारो से सारा संसार बहुत पीडित है । हर नर- नारी, बूढे- बच्चे, जवान, ज्ञानी, अज्ञानी वा साधक सभी इस विकार से दुखी हैं । लोगो को कुछ समझ में नही आता । आखिर में, यह घोर कलयुग है, कह कर अपने को जस्टिफाई कर लेते है ।
-घोर कलयुग इसका कारण नही है । सतयुग में भी यही दिन -रात, यही पानी, यही सब्जियाँ, यही खाद्य पदार्थ होते है ।
-अपवित्रता का मूल कारण है भोजन की अशुढि है़ । तमोगुणी भोजन,प्याज, लहसुन, मांस, मदिरा वा अन्य नशे के पदार्थ सेवन करने से अपवित्रता को बल मिलता है । इसका त्याग करना चाहिये । परंतु काफी लोग इनका सेवन नही करते, फ़िर भी वह अपवित्रता के विचारो से परेशान रहते है ।
-असल में अपवित्र विचारो का मूल कारण यह है क़ि आज व्यक्ति घर का खाना कम और बाहर का खाना खाते है अर्थात दूसरो के हाथ से बनाया हुआ खाना सेवन करते है । घर में मातायें-बहिनें जो प्यार से खाना बनाती हैं, बाहर वाले व्यक्तियों में वह प्यार नही होता ।
-हर व्यक्ति के हाथो की उँगलियॉ के पोरों से हमारी मानसिक ऊर्जा अर्थात जो हमारे मन में विचार है वह सदा बाहर निकलते रहते है ।
-जिन पदार्थों के बनाने पर उँगलियॉ के सिरे लगते है, वह भोजन नही खाना चाहिये, जो दूसरे लोगो ने बनाया है । इसका कारण यह है कि आज लगभग सभी लोग किसी ना किसी कारण से परेशान है या आमतौर पर कामुक चिंतन करते रहते है और कईयो का व्यक्तिगत जीवन भी अर्थात चरित्र अच्छा नही होता । जब वह भोजन बनाते है तो उनके मानसिक विचार उसमे प्रवेश कर जाते है । अतः जो भी वह भोजन खायेगा उसकी मानसिक पवित्रता भंग हो जायेगी ।
-जब कभी आप को आलस्य सताने लगे, आश्रम जाने को मन न करे, उत्साह ख़त्म हो रहा हो , शमशानी वैराग्य सा आने लगे, सारी दुनिया चोर, धोखेबाज़, स्वार्थी दिखने लगे तो समझना आप ने भोजन का नियम तोड़ा है तथा उस समय आपको समझ नही आयेगा कि कब नियम तोड़ा है । ये मनोदशा बीतने के एक दो दिन बाद याद आयेगा कि हम ने अमुक दिन अमुक जगह भोजन का नियम तोड़ा था ।
-याद रखो आज तक जो ईश्वरीय जीवन से दूर गया है, सबसे पहले उसने भोजन का नियम तोड़ा था । आगे जो भी भगवान का हाथ छोड़ेगे वे वही होगे जो भोजन का नियम तोड़ेगे बाकी तो सब बहाने होते है ।
-आदरणीय भाऊ विश्व किशोर जी, जिस किसी भी आश्रम पर जाते थे, वह निमित्त बी. के. बहिनों के हाथ का नही, स्वयं हाथ द्वारा भोजन बना कर खाते थे । वह सदा भोजन का समान अपने साथ रखते थे ।
-आज भी जो अच्छी दीदीया है, वह दो फुल्के अपने हाथ से बना कर खाती है, क्योंकि वह जानती है, हर माता वा कन्या वा भाईयों की मानसिक दशा अलग अलग होती है बेशक वह अनेकों वर्षों से ज्ञान योग का अभ्यास कर रहे हो ।
-ऐसे ही हमे भी रोटी अपने हाथ से बना कर ही खानी चाहिये । तभी मनसा, वाचा, कर्मणा पवित्रता पालन कर सकेंगे नही तो कोई ना कोई लकीर रह जायेगी ।
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