पाप-पुण्य को लेकर मान्यताओं की तुलना
# ईसाइयत -
प्रत्येक व्यक्ति जन्म से पापी होते हैं, क्योंकि सृष्टि के आदि में हव्वा और आदम ने बाइबिल के ईश्वर के आदेश की अवमानना की थी । इसलिए ईश्वर ने हव्वा को शाप देकर पापी करार दिया था । इस पाप से बचाने वाला केवल एक मात्र ईसा मसीह है, क्योंकि वह पापों को क्षमा करने वाला है । इसलिए केवल ईसा मसीह पर विश्वास लाने वाला ही स्वर्ग का अधिकारी होगा । इसलिए ईसा मसीह को मानो और अपने पाप से मुक्ति प्राप्त करो । क्योंकि केवल ईसा मसीह ही मुक्ति प्रदाता है । पापों को करने से रोकने के स्थान पर ईसा मसीह पर विश्वास को अधिक महत्व दिया गया है । यह मान्यता एक पाखंड के समान दिखती है, कि यदि कोई व्यक्ति कोई भी पाप कर्म न करे मगर ईसा मसीह पर विश्वास न करे तो भी वह नरक में जायेगा, क्योंकि वह जन्म से पापी है ।
# इस्लाम -
पाप न करने के लिए कुछ आयतों के माध्यम से सन्देश अवश्य दिया गया है । परन्तु पाप को न करने से अधिक महत्व इस्लाम की मान्यतों को दिया गया है । मुस्लिम समाज के लिए आचरण से अधिक महत्वपूर्ण मान्यताएं हैं । जैसे ईद के दिन निर्दोष पशुओं की हत्या करना उनके लिए पाप नहीं है, क्योंकि यह इस्लामिक मान्यता है । जैसे जिहाद के नाम पर निर्दोषों को मारना भी पाप नहीं हैं, अपितु पुण्य का कार्य हैं, क्योंकि इसके परिणाम स्वरुप जन्नत और हूरों के भोग की प्राप्ति होगी । क़ुरान के ईश्वर, अल्लाह से अधिक महत्वपूर्ण पैगम्बर मुहम्मद साहिब प्रतीत होते हैं । यह मान्यता है, यह विश्वास है । इस्लाम में पाप-पुण्य कर्म की मान्यताओं से अधिक महत्व इस्लाम को महत्व देना, उसे धर्म नहीं अपितु मत सिद्ध करता है |
वैदिक धर्म -
वेदों में मनुष्य और ईश्वर के मध्य न कोई मुक्तिदाता है, न कोई मध्यस्थ है । मनुष्य और ईश्वर का सीधा सम्बन्ध है । मान्यता या विश्वास से अधिक सत्यता एवं यथार्थ को महत्व दिया गया है । सम्पूर्ण वेदों में अनेक मंत्र मनुष्य को पाप कर्म न करने एवं केवल पुण्य कर्म करने का सन्देश देते हैं । वेद पाप क्षमा होना नहीं मानता है । क्योंकि कर्मफल सिद्धांत के अनुसार जो जैसा कर्म करेगा वैसा फल प्राप्त करेगा ।
पाप क्षमा होने से मनुष्य कभी पाप करना नहीं छोड़ेगा अपितु भय मुक्त होकर और अधिक पापी बनेगा । वेद मनुष्य को पाप कर्मों का त्याग करने के लिए संकल्प करने का सन्देश देता है । संकल्प को प्रबल बनाने के लिए वेद ईश्वर कि स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना कर आध्यात्मिक उन्नति करने का विधान बताता है | मनुष्य जितना उन्नति करता जायेगा, पाप आचरण से विमुख होता जायेगा । उतना उसके कर्म पुण्य मार्ग को प्रशस्त करेगें । वैदिक विचारधारा में मनुष्य के कर्म सर्वोपरि है न की मान्यता, विश्वास अथवा मध्यस्ता । व्यवहारिक, क्रियात्मक एवं प्रयोगात्मक दृष्टि से केवल वेदों की कर्मफल व्यवस्था सत्य के सबसे निकट है |
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