30 नवम्बर/जन्म-दिवस
धुन के पक्के भूषणपाल जी जीवन परिचय
भूषणपाल जी का जन्म 30 नवम्बर, 1954 को जम्मू-कश्मीर राज्य के किश्तवाड़ नामक नगर में हुआ था। उनके पिता श्री चरणदास गुप्ता तथा माता श्रीमती शामकौर थीं। चारों ओर फैली सुंदर हिमाच्छादित पर्वत शृंखलाओं और कल-कल बहती निर्मल नदियों ने उनके मन में भारत माता के प्रति प्रेम का भाव कूट-कूट कर भर दिया। उच्च शिक्षा प्राप्त कर उन्होंने कुछ समय किश्तवाड़ के भारतीय विद्या मंदिर में पढ़ाया; पर मातृभूमि के लिए कुछ और अधिक करने की इच्छा के चलते 1981 में वे प्रचारक बन गये।
चार भाइयों में से तीसरे नंबर के भूषणपाल जी छात्र जीवन में ही संघ की विचारधारा में रम गये थे। उनका अधिकांश समय शाखा कार्य में ही लगता था। नगर की अन्य सामाजिक गतिविधियों में भी वे सक्रिय रहते थे। आपातकाल में कई स्वयंसेवकों के साथ सत्याग्रह कर वे कारागृह में भी रहे।
भारत में लोग चाहते हैं कि शिवाजी पैदा तो हो; पर वह अपने नहीं, पड़ोसी के घर में जन्म ले, तो अच्छा है। इस भूमिका के कारण ही हिन्दुओं की दुर्दशा है। सामान्यतः जब कोई युवक प्रचारक बनता है, तो उसके परिवारजन घर की समस्याओं और जिम्मेदारियां बताकर उसे इस पथ पर जाने से रोकते हैं; पर भूषणपाल जी के माता-पिता समाजसेवी और आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे। अतः उन्होंने अपने पुत्र को प्रचारक बनने की सहर्ष अनुमति दी।
इस अवसर को प्रेरक बनाने के लिए उन्होंने एक विशाल यज्ञ किया। इसमें किश्तवाड़ तथा निकटवर्ती गांवों के सैकड़ों हिन्दुओं ने आकर भूषणपाल जी को इस पवित्र पथ पर जाने का आशीर्वाद दिया। इसके बाद भी जब तक वे जीवित रहे, अपने पुत्र का मनोबल बनाये रखा।
प्रचारक बनने पर उन्हें लद्दाख तथा फिर कठुआ में जिला प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी। पर्वतीय क्षेत्र में काम मैदानों जैसा सरल नहीं है। एक गांव से दूसरे गांव तक पहुंचने में कई बार पूरा दिन लग जाता है। शाखा, कार्यकर्ता एवं कार्यालय कम होने के कारण भोजन-विश्राम भी ठीक से नहीं होता। ऐसे कठिन एवं दुर्गम क्षेत्र में भी भूषणपाल जी ने प्रसन्नता से काम किया। कई-कई दिन तक पैदल भ्रमण कर उन्होंने दूरस्थ क्षेत्रों में शाखाएं स्थापित कीं। इसके बाद उन्हें जम्मू-पुंछ के विभाग प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी।
धार्मिक कार्यों में रुचि के कारण 1990 में उन्हें जम्मू-कश्मीर प्रान्त में विश्व हिन्दू परिषद का संगठन मंत्री बनाया गया। परिश्रमी स्वभाव एवं मधुर व्यवहार के कारण उन्होंने शीघ्र ही पूरे प्रान्त में सैकड़ों नये कार्यकर्ता खड़े कर लिये। उनका कंठ बहुत मधुर था। इसका उपयोग कर उन्होंने पुरुषों एवं महिलाओं की कई भजन मंडली एवं सत्संग मंडल गठित कर डाले।
परिषद के काम के लिए उन्होंने प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों तक प्रवास किया। इससे वे अनेक रोगों से ग्रस्त हो गये। उन्हें बहुत कम दिखाई देने लगा था। फिर भी वे प्रवास पर चले जाते थे। कई बार राह चलते पशुओं और वाहनों से टकराकर वे चोटग्रस्त हो जाते थे। उनका मन आराम की बजाय काम में ही लगता था।
अपनी धुन के पक्के भूषणपाल जी ने जीवन के अंतिम तीन वर्ष बहुत कष्ट में बिताये। उनके रक्त में अनेक विकार हो जाने के कारण कार्यालय पर ही दिन में तीन बार उनकी डायलसिस होती थी; पर इस पीड़ा को कभी उन्होंने व्यक्त नहीं किया। 12 मई, 2011 को राम-राम जपते किश्तवाड़ के चिकित्सालय में ही उनका शरीरांत हुआ।
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